सांप और चुहा
Mon, 26 Aug 2024
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सांप और चुहा

लेखक :- डॉ.एस कुमार______________________,,✍️

दो उल्लू एक वृक्ष पर आकर बैठे। एक ने सर्प अपने मुँह में पकड़ रखा था। भोजन था उनका, सुबह के नाश्ते की तैयारी थी। दूसरा एक चूहा पकड़ लाया था। दोनों जैसे ही वृक्ष पर बैठे और दोनों एक--दूसरे के निकट थे। एक के मुँह में साँप एक के मुँह में चूहा। साँप ने चूहे को देखा तो वह यह भूल ही गया कि वह उल्लू के मुँह में है और मृत्यु के करीब है। चूहे को देखकर उसके मुँह में रसधार बहने लगी। वह भूल ही गया कि मृत्यु के मुँह में है। उसको अपनी जीवेष्णा ने जकड़ लिया था। और सर्प के मन में उस चूहे को खाने की इच्छा होने लगी। कैसी बिडम्बना है भूख की। उस सर्प को ये पता नहीं कि मैं भी इस चूहे की भाँति किसी उल्लूरूपी काल के मुँह में पहले से बैठा हूँ। और यह काल मेरा थोड़ी ही देर में ग्रास बनाने वाला है। चूहे ने जैसे ही साँप को देखा वह भयभीत हो गया, बुरी तरह से वह काँपने लगा। उस चूहे ने ये भी नहीं देखा कि जो स्वयं काल का ग्रास बनने वाला है। वो भला मुझे क्या मारेगा। किन्तु मृत्यु का भय तो भयंकर होता ही है किन्तु उससे भी अधिक मृत्यु से होने वाला भय था। जो चूहे को कम्पित कर रहा था। वे दोनों उल्लू बड़े ही आश्चर्यचकित हो गए। एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा---- भाई ! इसका कुछ आशय (राज) समझे या नहीं दूसरे ने कहा बिल्कुल समझ में आ गया। जीभ के स्वाद की इच्छा इतनी प्रबल है कि सामने मृत्यु खड़ी हो तब भी दिखाई नहीं पड़ती। और यह भी समझ में आया कि भय मृत्यु से भी बड़ा भय है। मृत्यु सामने खड़ी है, उससे यह भयभीत नहीं है चूहा; लेकिन भय से भयभीत है कि कहीं साँप हमला न कर दे।’ मृत्यु से हम भयभीत नहीं हैं, हम भय से अधिक भयभीत हैं। और लोभ स्वाद का, इन्द्रियों का, जीवेष्णा का इतना प्रगाढ़ है कि मृत्यु चौबीस घण्टे सामने खड़ी है, फिर भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। हम अन्धे हो रहे हैं।

इस कहानी से एक विचित्र अर्थ हमारे हृदय पटल के सामने आता है कि समूचे संसार के प्राणी मृत्यु से भयभीत हैं। जबकि यह विचार करने का विषय है कि मृत्यु और काल दोनों ईश्वरीय सृष्टि में आते हैं अर्थात् भगवान् ने इनकी रचना की है, और ये अटल सिद्धान्त है कि जिसका सर्जन (रचना) होता है उसका विसर्जन (विनाश) अवश्य होता है। इस ज्ञान के होते ही हमें पता चल जाता है कि मृत्यु और काल दोनों का विनाश करने के लिए भगवान् स्वयं महाकाल हैं। मृत्यु अथवा काल रूप को नष्ट करने वाले हैं। अजर--अमर आत्मा एवं नाम पर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि आत्मा कालातीत है। जिस प्रकार मरते हुए साँप को देखकर भी चूहा डर रहा था। और सोच रहा था कि कहीं ये मुझे न मार दे। यही दशा संसार के सम्पूर्ण प्राणियों की है। क्योंकि जिनसे वह डरता है वो भले ही कोई विशेष पदार्थ और मृत्यु ही क्यों न हो स्वयं विनाश की ओर सभी उसी प्रकार बढ़ रहे हैं जैसे नदियाँ समुद्र की ओर बढ़ती हैं। उस साँप ने चूहे को उल्लू के मुख में देखकर स्वयं खाने की इच्छा प्रकट की। यही दशा समस्त जगत् के जीवों की है। जीवात्मा जिस दिन चौरासी लाख योनियों में जिस शरीर को धारण करता है अर्थात् जिस दिन उसका जन्म होता है, उसी दिन से उसका मरना भी आरम्भ हो जाता है। किन्तु कैसी विचित्र बिडम्बना है कि यह मरना किसी को दिखायी नहीं देता। क्योंकि काल भगवान् एक अजगर की भाँति प्रत्येक स्थान पर अपना मुँह फैलाये हुये विद्यमान हैं। हम जिसको शरीर का विकास कहते हैं, वही वेदान्त आदि ग्रन्थों की दृष्टि में सबसे बड़ा विनाश है। क्योंकि काल के पास असंख्य बाण हैं। जिनसे जीवात्मा क्षण--प्रतिक्षण मरता रहता है। इसलिए इस कहानी का यही वास्तविक अर्थ है कि चूहा और सर्प ही नहीं अपितु हमको भी अपनी मृत्यु दिखायी न देकर उसके भय से भयभीत रहते हैं। इसका यही तो तात्पर्य हुआ कि मृत्यु उतनी भयंकर नहीं जितना मृत्यु का भय भयंकर है।


लेखक :- डॉ.एस कुमार_
 
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